Wednesday, June 22, 2016

‪#‎शहरकीदास्ताँ‬ 



मेहर की पायल की छनक से पूरा महरौली शहर गुलज़ार था ! वो महरौली शहर की सबसे मशहूर गाने वाली थी ! दिखने में ऐसी की रातों की नींद उड़ जाए ! ख़ूबसूरती की इन्तहां थी वो ! आशिक़ों की उसे कोई कमी नहीं थी, दिन रात लोग उसकी एक-झलक पाने को बेताब रहते थे ! लेकिन ये बात उसके कई चाहनेवालों को नागवार गुज़रती थी ! लोगो ने उसे पाने के लिए हर तरह के जतन कर लिए थे, लेकिन वो थी की वो किसी के हाथ ना आई ! लेकिन एक शख्स था जिसके इश्क़ में वो गिरफ़्तार हो चुकी थी ! वो शख्स था एक नौजवान शायर जिसने मेहर को दीवाना बना रखा था, मेहर दिन-रात बस उसके ही सपने देखा करती थी !
वो दोनों हमेशा बस एकांत की तलाश में रहते जहाँ उन्हें दो पल सुकून भरे मिल जायें !
वो बावली के आस-पास बैठकर अपने मुस्तक़बिल के बारे में सोचते, और एक दूसरे को ढेर सारे वादे करते हुए चूम लेते थे ! एकबार एक सेठ ने उन दोनों को ऐसा करते हुए देख लिया था, मेहर को सेठ बड़ी ही घटिया निग़ाह से देखता था, उसने सोचा मौका अच्छा है, इस बार शायद वो मेहर को डरा-धमका कर मना लेगा ! वो अगले दिन मेहर के पास गया और उसे कहा देखो तुम मेरी बन जाओ नहीं तो मैं तुम्हें बदनाम कर दूंगा ! मैं जानता हूँ तुम सर्द रातों को उस जवान लौंडे के साथ गुलछर्रे उड़ाती हो ! मेहर जानती थी, कि वो सेठ उससे आख़िर चाहता क्या है ! मेहर ने अपनी आवाज़ को ऊँचा किया और कहा, सेठ अगर तुम्हें ये लगता हो की मेरे पाक़-साफ़ इश्क़ को ख़राब कर दोगे तो ये तुम्हारी ग़लतफ़हमी है !
सेठ ने कहा ठीक है, बड़ा गुमाँ हैं ना तुझे अपनी सूरत पर, देख कैसे मिट्टी में मिलाता हूँ तुझे !
मेहर ने बड़े ही प्यार से कहा,
इश्क़ ख़ुदा है, तू ख़ुद मिट्टी में मिल जाएगा, और तेरा निशां भी नहीं मिलेगा !





सेठ गालियाँ देते हुए मेहर के कोठे से बाहर निकल आया ! कुछ दिन यूँ ही तमाम् हुए, मेहर और उसका आशिक़ यूँ ही नए-नए ठौर तलाशते हुए अपना इश्क़ परवान चढ़ाते रहे ! कभी झुमका गिराकर मेहर बस क़दमों के निशाँ बनाते हुए आगे निकल जाती थी, और उसका आशिक़ उसके पीछे मेहर के क़दमों के निशाँ पर कदम-ब-कदम चला आता था ! पानी के सोतों पर रुककर वो दोनों अटखेलियाँ किया करते थे, उनका इश्क़ ऐसा हो चला था की परिंदे भी उनको देखने लगते थे !
एक दिन शहर में अफ़रा-तफरी मच गई, मेहर ने भी अपने मेहराब से नीचे झाँककर देखा तो एक सेठ मेहर की चौखट के आगे खड़ा होकर उसे गालियाँ सुना रहा था ! कह रहा था इन नाचने-गाने वाली औरतों की वज़ह से हमारी औरतें ख़राब हो रही हैं, ये औरत अपने आशिक़ के साथ घूमती है, और सरेआम उसे चूमती है ! इन कोठेवाली औरतों ने हमारी संस्कृति बिगाड़ दी है ! सेठ का लोगो ने साथ देना शुरू कर दिया, फिर उसी में से किसी ने बीच में कहा जाओ इसके उस आशिक़ को भी पकड़कर यहाँ ले आओ ! मेहर नीचे दौड़कर आई, उसका आशिक़ भी वहीँ खड़ा था, दोनों एक दूसरे को देख रहे थे ! तभी किसी ने पत्थर चला दिया जो सीधा मेहर को जा कर लगा ! मेहर पत्थर लगते ही बेहोश हो गई ! इधर भीड़ ने अपना फ़ैसला कर दिया था, उसके आशिक़ को पत्थरों से पीटकर मार डाला गया ! सबके चले जाने के बाद मेहर को होश आया, उसने देखा उसके सामने उसके आशिक़ की लाश पड़ी है !
मेहर ये देखकर बिलकुल टूट सी गई मगर उसने तय कर लिया था की वो ऐसे ख़ामोशी से नहीं जायेगी ! मेहर ने एक गीत तैयार किया, “मैं अपने ग़मों को लेकर कहाँ जाऊं” !
मेहर ने शहंशाह से गुज़ारिश की एक जलसा रखवाया जाए, शहंशाह मेहर के मुरीद थे, तो उन्होनें बात मान ली ! जलसा शुरू हुआ और मेहर ने गाना शुरू किया, ऐसा लगा जैसे वहां खड़े सभी लोगों की आँखों से आँसू सैलाब बनकर निकल रहे थे ! मेहर ने जलसे को अपने हुनर से लूट लिया, महफ़िल में सभी लोग वाह किये जा रहे थे ! किसी को नहीं पता था की अगले पल क्या होने वाला था !
जलसा ख़त्म हुआ, लोग अपने घरों को लौट गए !
मेहर घर आई और उसनें फाँसी लगाकर ख़ुद को ख़त्म कर लिया, सेठ को भी ये बात पता लगी तो उसने मगरमच्छ के आँसू गिराए !
इस बात को कुछ महीनें बीत गए थे, लोग अब मेहर और उसके आशिक़ को अब भूल चुके थे
सेठ की बस एक बेटी थी, उसकी शादी की उम्र हो चली थी, सेठ चाहता था, की उसकी शादी धूमधाम से हो ! मगर शायद क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था ! मगर सेठ की बेटी बावली के मज़दूर से इश्क़ कर बैठी ! सेठ को पता चल गया, उसने फ़िर अपनी बेटी को क़ैद करवा दिया, बेटी एक दिन अपने माशूक़ के साथ अपने घर से निकल गई, और बावली की छत से कूद कर अपनी जान दे दी !
यहाँ की हवा में आज भी उन दोनों जोड़ों की खिलखिलाहट सुनाई देती है, दोनों मरकर भी अमर हो गए ! पास में ही उन चारों की कब्र हैं, जहाँ प्यार करने वाले लोग दूर-दूर आते हैं, और उन चारों की कब्र पर दिया जलाते हैं !
मेहर की बात सच साबित हुई, सेठ का कोई ठिकाना आज तक नहीं मिल पाया है I  

#प्रवीण झा 

Monday, June 20, 2016


सुनों मुस्लमानों 

तुम मेरा ही हिस्सा हो और मैं तुम्हारा !

कुछ दस एक साल पहले की बात है, मेरे पापा कैंसर की बीमारी से लड़ रहे थे, जब परिवार में कोई कैंसर से लड़ रहा हो, तो सिर्फ़ वो ही नहीं बल्कि पूरा परिवार इससे जूझता है I मैंने तब अपने 16वें साल में क़दम रखा था, नहीं जानता था दुनियादारी मेरे लिए उस वक़्त तक गंगाधर और शक्तिमान दोनों अलग थे I

पापा के एक दोस्त थे, "मुसलमान" थे, सलीम अंकल उनको पापा की बिमारी के बारे में पता चला तो उन्होंने हमारे घर कहा आप मस्जिद में मौलवी साहब से हर शाम नमाज़ के बाद फूँक लगा पानी दिया कीजिये, इंशाअल्लाह इनकी तबियत जल्द ही ठीक हो जायेगी I मौलवी साहब को सलीम अंकल ने ख़ास तौर पर बता दिया की वो हमारे पापा के दोस्त हैं I अगले दिन से हम जाने लगे मस्जिद के दर्शन करने, पहले कुछ दिन तो बड़ा अजीब सा लगा, यार बड़ी अजीब सा इत्र लगाते हैं मियाँ भाई I लेकिन फ़िर कुछ दिनों ये गंध नाक को भा गई  I लेकिन मैं अपने पापा के लिए वहाँ जाता था, मुझे उम्मीद बंधवाई गई थी की इससे मेरे पापा मुझसे दूर नहीं जायेंगे I मैंने मस्जिद जाना जारी रखा, पापा की तबियत में भी ठीक-ठाक सुधार था, हमारा मौलवी साहब की फूँक पर भरोसा और भी ज़्यादा बढ़ गया I

लेकिन अचानक कुछ दिनों बाद पापा की तबियत अचानक ज़्यादा ख़राब हो गई, मैं घबराया हुआ मस्जिद पहुंचा, पापा का इलाज़ यूँ तो दिल्ली के अच्छे हॉस्पिटल में चल रहा था, लेकिन फ़िर भी वो कहावत हमेशा से कानों में गूँजती थी, "दुआओं में बड़ी ताक़त होती है" I उस दिन मस्जिद पहुँचा और मस्जिद की चौखट पर खड़ा होकर चिल्लाने लगा, "मौलवी साहब, मौलवी साहब, जल्दी आईये, पापा की तबियत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई है, मौलवी साहब तो नहीं निकले लेकिन मदरसे में पढ़ने वाला एक छोटा लड़का बाहर आया, और उसने मुझे कहा "भाईजान मौलवी साहब ने आपको अन्दर बुलाया है" I मैं ना-जाने क्यूँ ठिठक गया, जैसे मेरे पांव पत्थर जैसे जम गए हों, पता नहीं मन में क्या सोचने लग गया I

इसका कारण था, कारण ये था की बचपन से मुसलमान को तो बुरा ही प्रोजेक्ट किया गया था ना, और मुसलमान बुरे भी तो होते हैं, गंदी प्लेट में खाना खाते हैं, बिस्तर पर बैठकर खाते हैं, गंदा इत्र लगाते हैं, और रहन-सहन भी तो गन्दा होता है इनका, और एक ब्राह्मण का बेटा कैसे इनकी मस्जिद में जा सकता था I  आज जब सोचता हूँ तो ख़ुद पर हँसी आती है और गुस्सा भी, खैर मैं मस्जिद में क़दम बढ़ाने लगा, लेकिन मन ही मन बहुत ज़्यादा कुछ कटोच सा रहा था, ऐसा अपराधबोध मैंने आज से पहले कम ही महसूस किया था, लेकिन इस बार मेरे पापा की ज़िंदगी की थी, तो मैंने हर चीज़ को ताक़ पर रखकर मस्जिद में क़दम रख दिए, वहाँ अन्दर एक बहुत बड़ा सा गलियारा था और एक लंबी पानी की टोटियों की श्रृंखला भी थी जहाँ बहुत सारे लोग एक साथ बैठकर हाथ,पैर,मुंह धो रहे थे, बड़ा ही शांत माहौल था वहाँ का जैसा मंदिरों में होता है, अंदर गया तो वहाँ मौलवी साहब बैठे हुए थे, उनके साथ दो-चार और भी लोग थे, और बातचीत कर रहे थे, मौलवी साहब के ठीक पीछे एक बड़ी सी दिवार थी, जहाँ कुछ लोग उस दिवार की तरफ़ मुंह करके ना-जाने क्या कर रहे थे, और लगातार हिल भी रहे थे, उनके सामने वो पाक़ क़िताब थी, जिसका ज़िक्र क़िताबों में है, इस सवाल का जवाब देते हुए की
प्रश्न - मुसलमानों की सबसे धार्मिक क़िताब कौन सी है ?
उत्तर - क़ुरान शरीफ़

आज जब क़ुरान को पढ़ चुका हूँ, तो पाता हूँ की ये तो वैसी ही है जैसी, अपनी पवित्र क़िताबें, रामायण, गीता आदि-आदि हैं, इनमें भी वही बातें लिखी हैं जो क़ुरान शरीफ़ में I

मौलवी साहब ने कहा, आओ बेटा क्या हुआ इतना परेशां क्यूँ हो, मैंने बहुत घबराहट में जवाब देना शुरू किया वो मौलवी साहब, पापा की तबियत बहुत ही ज़्यादा ख़राब हो गई है, डॉक्टर ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं, उनका कहना है, अब कुछ नहीं हो सकता, मौलवी साहब आप ही कुछ करिए ना, अब आप ही कुछ कर सकते हैं, प्लीज़ मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ, प्लीज़ कुछ तो करिए, उन्होंने कहा बेटा सुनो सब्र से काम लो, अल्लाह अपने बंदो का इम्तिहान लेता है, मैं उनके सामने टूट गया और फूट-फूट कर रोने लगा, उन्होंने कहा तुम फ़िक्र मत करो, तुम्हारे पापा एक नेकदिल इंसान हैं, उन्होंने तो हमेशा परवरदिगार की खिदमत की है, उन्हें कुछ नहीं होगा I

उनकी बात से मुझे और कुछ नहीं तो तस्सली ज़रूर मिल रही थी, उन्होंने पानी पढ़ कर दिया और मैं उस पानी घर ले आया और पापा के पास भिजवा दिया I
उस दिन मैं मस्जिद में पहली बार घुसा था, और अब आलम ये है की मैं नमाज़ तक में शामिल हो चुका हूँ, मेरे कितने ही दोस्त मुसलमान हैं, उनके घर जाता हूँ उनकी थाली में खाता हूँ, वो हमारे घर त्योहारों में शामिल होते हैं I

मैं मुसलमानों से नफ़रत नहीं कर सकता माफ़ कीजिये, मैं सनातन धर्म जो मुझे मेरे पापा से मिला है मैं उसका भी उतना ही सम्मान करता हूँ जितना इस्लाम का, मैं सबको उतना ही हिस्सा मानता हूँ जितना मेरा हक़ है I
मैं मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा,गिरजाघर हर जगह उतना ही सुकून पाता हूँ I

मस्जिद का फूँका हुआ पानी पीने के बाद पापा की तबीयत ठीक हुई थोड़ी सी, लेकिन कुछ दिन बाद मेरे पापा इंतकाल फरमा गए, वो उस अनंत यात्रा का हिस्सा बन गए, और इसका असर मुझपर ये हुआ की मैं भीतर से टूट गया, हमारे परिवार को भगवान, अल्लाह कोई भी हो सबसे नफ़रत हो गयी, हमने भगवान की बरसों तक कोई पूजा नहीं की, हमारा जीवन ख़ाली सा गया था, पापा के जाने के बाद और भी उस खालीपन का कोई जवाब नहीं है और ना ही होगा I
लेकिन फ़िर से एक दिन माँ ने पूजा की धीरे-धीरे बहनें भी आगे आयीं, लेकिन मैं आज तक नहीं निकल पाया हूँ उस से I

मैं मंदिर,मस्जिद जाता रहता हूँ, आमतौर पर, दरगाह में ज्यादातर जाता हूँ, कुछ ढूँढने जाता हूँ, पर वो नुसरत साहब ने गया है "तुम्हारी दीद की ख़ातिर कहाँ-कहाँ पहुँचा" I



पापा के जाने के बाद मेरी पढ़ाई पर बहुत बुरा असर हुआ, पढ़ाई में मन नहीं लगा उस वक़्त बोर्ड रिजल्ट ख़राब आया I अंदर से बिख़र सा गया था, लेकिन फ़िर उनके जाने के बाद मैंने दुनियावी क़िताबे उठाई, और पढ़ना शुरू किया, गीता,रामायण,क़ुरान शरीफ़, ग्रंथ साहिब के शब्द भी पढ़े और अपने हिसाब से मुझे इन क़िताबों में कहीं भी "नफ़रत" नज़र नहीं आई I

वहाँ उस वाक़िये को गुज़रे आज लगभग दस साल होने को है, लेकिन अब मेरा "डर" जो मुसलमानों के लिए था वो निकल चुका है, मैं दिल्ली की हर दरगाह जाता हूँ, और हर जगह बस एक ही दुआ करता हूँ, सबके मन शांत हो एक दूसरे के लिए नफ़रत ख़त्म हो, जानता हूँ मैं एक यूटोपिया में जी रहा हूँ, हर कलाकार इसे में जीता है, तो कोई परेशानी की बात नहीं I


मुसलमान मेरे लिए कभी दुश्मन नहीं रहे, बल्कि वो एक वफ़ादार दोस्त रहे हैं, जो हर सुख-दुःख में साथ निभाते हैं, वो मेरे लिए कटुए नहीं बल्कि ईद में मेरे घर सेवईं लाने वाले वो लोग रहे हैं, जो अपनी ख़ुशी मुझसे बाँटते हैं I मैंने तो वो मुसलमान देखा है, जो एक बुजुर्ग है, और आप अजमेर आये, और आपने लोगो को सही रास्ता बताया, वो रास्ता जो किसी धर्म, जाती, संप्रदाय का नहीं बल्कि इंसानियत का रास्ता था I

मैं उन मुसलमानों से मुख़ातिब हुआ हूँ, जो मेरे ऊपर बरसाए जा रहे पत्थरों को अपने ऊपर लेकर, ख़ुद को घायल कर रहा था I

मैं उन बुजुर्गों की दरगाह पर जाकर किसी मज़हब को नहीं बल्कि उन विचारों को तलाश करता हूँ जो इतने सारे लोगो को जो अलग-अलग धर्म के मानने वाले हैं, सभी को एक जगह इकठ्ठा कर देता है I

क्या मौलवी साहब की फूँक से मेरा पापा का कैंसर ठीक हो जाता ? नहीं बिल्कुल नहीं, लेकिन वो बस एक तरीका था, तस्सली देने का, वो तस्सली जो इंसान की रूह तक उतरती है और उसको लड़ने का हौसला तो ज़रूर देती है I                  
मुस्लमानों तुम गंदे नहीं हो बल्कि तुम प्यारे हो, तुम मेरे भाई हो, तुम मेरा ही हिस्सा हो और मैं तुम्हारा हिस्सा हूँ I
तुमनें मुल्क को अपना ख़ून दिया है मेरी ही तरह, तुम भी इसी मिट्टी के हो ना I

तुमनें इस मुल्क की आबरू बचाई है, तुमनें भी सींचा है इस मुल्क को, तुम्हारा हक़ है इस पर मेरी ही तरह I तुम मत सुनना उन लोगो को जो तुम्हारा आँखों पर फ़रेब डालते हों, तुम सुनना उनको जो तुम्हारे साथ कंधे-से कंधा मिलाकर चलते हों I

तुम हिंदुओ को अपना भाई मानना, तुम उनके साथ बात करना, तुम उनसे सीखना वो तुमसे सीखेंगे I ऐसे ही तो आगे बढ़ते हैं ना हम और एक मुल्क के तौर पर हमें आगे बढ़ना ही होगा I

मौलवी साहब की फूँक कभी-कभी मेरे चेहरे पर भी पड़ जाया करती थी,
और कसम ख़ुदा की उसमें जो दुआयें हैं ना वो वैसी ही है जैसी मुझे इस बार नील कंठ के दर्शन करने के बाद हुई !

#प्रवीणझा    

 
     
                   

                                                                                                                                   

शायद ये जानते हुए की.... शायद ये जानते हुए की जानकार कुछ नहीं होगा मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ की तुम कैसी हो, खाना टाइम पर खा लेती होना ...